कितना कुछ
छोटा छोटा
घेर लेता है हमें
दिन पर दिन
जोड़ते जाते हम
कुछ और चीज़ें, कुछ और रिश्ते,
कुछ और अनुभव, कुछ नई शिकायतें,
कुछ नए निशान उपलब्धियों के, आभार के
धीरे धीरे
वह
जो जिया जा चुका है
वह
जिसमें शेष हो चुकी है हमारी भूमिका
एक परकोटे की तरह
छा जाता है हमारे चारों ओर
ऐसे की
हममें और
कुएं के मेंढक में
कोई फर्क नहीं रह जाता
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१४ अगस्त २०१०
पुनश्च -
क्या कभी ऐसा हुआ
कि अपने ही हाथ की बनी चाय
बहुत स्वाद लगी हो
इतनी अच्छी कि उस स्वाद को
परिभाषित करना
मुश्किल हो जाए?
और फिर किसी नए दिन
चाय की तलब
क्या दूर कर सकता है
पुराना स्वाद?
आदतन
बासी अनुभूतियों से
इस क्षण में सुन्दर सार रंग
भरने का प्रयास करते
हम
नक्शा देख कर
दुनिया देख लेने की आश्वस्ति
दे लेते स्वयं को
पता नहीं इस छल से
नुक्सान दुनिया का है
या हमारा?
अशोक व्यास
१४ अगस्त २०१०
2 comments:
बढिया प्रस्तुति, बधाई।
छोटे में उलझ जाना कितना पीड़ादायी है जीवन के लिये।
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