सुबह से शाम तक
एक बगूला सा उठता है
एक लहर ऐसी
जिसको किनारा नहीं
असमान को छू लेने की जिद है
और मैं
चारो दिशाओं में
तलाशता फिरता
वो छडी
जिससे छूकर
शांति कर दूं इस लहर को
२
लहर में
शामिल है
वो सब जो दिखा
पर उससे ज्यादा वो
जो रह गया अनदेखा
वो सब जो हुआ
पर उससे ज्यादा वो
जो रह गया अनहुआ
लहर में
छुपी है
एक छटपटाहट
और
अपने आपको
फिर से सहेजने, संवारने
सँभालने की चाहत
ये कौन है
जो बदल कर
'सही होने का अर्थ'
सहसा
बड़ा सा प्रश्न चिन्ह लगा कर
मेरे अस्त्तित्व पर
छोटा सा
कर देता है मुझे
३
रेगिस्तान के
एक अंदरूनी हिस्से में
होठों पर जमी पपड़ी से
रेत हटाता
दूर
मरीचिका देख कर
मुस्कुराता
हांफता
गिरता
चुपचाप
विराट रक्षक के आगे
गिड़गिड़ाता
पर
हार मानते-मानते
फिर एक बार
चलने लगता
थका-थका लड़खडाता
कैसा रिश्ता है
उम्मीद से मेरा
इसे कभी
छोड़ नहीं पाता
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
शनिवार, १७ जुलाई २०१०
12 comments:
उम्मीद का दामन थाम कर ही तो इंसान ज़िन्दगी गुज़ार जाता है।
आस तो रहती है ना बस इतना ही काफ़ी होता है जीने के लिये।
आपने के बेहद सशक्त रचना लिखी है…………………छटपटाहट का जिस तरह निरूपण किया है वो काबिल-ए-तारीफ़ है।
शानदार पोस्ट
आपकी कविता में आपका द्वंद्व नजर आता है।
उम्मीद की डोर पतली है पर कभी टूटने नहीं पाती है।
मंगलवार 19 जुलाई को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार
http://charchamanch.blogspot.com/
इस रचना को लिया गया है....
मंगलवार २० जुलाई को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है आभार
http://charchamanch.blogspot.com/
दिनांक गलत छप गयी थी
बहुत सुन्दर रचना व्यास जी। अमेरिका में रह फैला रहे हैं चंहु ओर अपनी रचना का प्रकाश जी। बहुत सुन्दर।
सुंदर रचना.
लहर में
शामिल है
वो सब जो दिखा
पर उससे ज्यादा वो
रह गया अनदेखा
सुंदर पंक्तियां
हार मानते-मानते
फिर एक बार
चलने लगता
थका-थका लड़खडाता
कैसा रिश्ता है
उम्मीद से मेरा
इसे कभी
छोड़ नहीं पाता
बहुत ही सुन्दर रचना
उम्मीद है तभी जीवन है...बहुत शशक्त रचना है आपकी..बधाई
नीरज
बहुत अच्छा....मेरा ब्लागः"काव्य कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com .........साथ ही मेरी कविता "हिन्दी साहित्य मंच" पर भी.......आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे...धन्यवाद
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