रुकता नहीं
रुक-रुक कर भी
चलता जाता है
एक कुछ
भीतर मेरे
जिसके संकेत पर
देख देख कर उसको
सुन्दर हो जाता है
हर संघर्ष
हर पीड़ा के पार
पहुँच कर
लगता है
हो गई अनावृत
उसकी स्वर्णिम आभा
कुछ और अधिक
पहले से
आश्वस्त आधार पर भी
ना जाने कैसे
रच देता वह
कुछ ऐसे कम्पन्न
कि मिल जाता मज़ा
लड़खड़ा कर सँभालने का
विराट की
विनोदप्रियता पहचान कर
कभी कभी
अनंत का नम स्पर्श
झलका है
मेरी मुस्कान में भी
और तब-तब
कृतकृत्य हुआ हूँ
पहले से कुछ ओर अधिक
इस धन्यता पर
सवाल उठाते सन्दर्भ
छीन लेना चाहते
मुझसे
परिपूर्णता का बोध
और मैं
द्रोपदी के चीर सी
अनवरत श्रद्धा से
उसकी मर्यादा बचाना चाहता
अपने भीतर
जिसका नाम शाश्वत सत्य है
रविवार, १८ जुलाई २०१०
सुबह ४ बजे
--------------------------------------
कविता सेतु द्वारा
इस ब्लॉग पर अदृश्य रूप में
अपने अपने 'लोक' से मिलने वाले सभी आत्मीय, सहृदय पाठक मित्रों से निवेदन
-भारत यात्रा हेतु प्रस्थान कर रहा हूँ आज
अगस्त के प्रथम सप्ताह में पुनः ब्लॉग सक्रिय होगा
यदि भारत में सम्भावना हुई तो यह 'स्वानुसंधान की रसमय अभिव्यक्ति यात्रा
वहां से भी आप तक पहुँच पायेगी
आप सबको शुभकामनाएं देते हुए
यात्रा के लिए आपकी मंगल कामनाएं अपने साथ मानते हुए
धन्यवाद
सस्नेह -- अशोक
3 comments:
कल (19/7/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट देखियेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
एक उत्कृष्ट रचना।
भारत में स्वागत है। आपका शाश्वत सत्य सदैव आपको संबल दे।
Post a Comment