Monday, June 28, 2010

सूरज की सीख


1
सिक्के के दो पहलू जो हैं
दोनों ही मेरी जेब में हैं
पर जब तुम मेरे पहलू में हो
सिक्का उछाले बिना ही
तय हो जाता है
पहल का निर्णय

व्यवस्था का स्वरुप 
स्थिरता का अभिनय
इतनी अच्छी तरह से करता है
कि भूकंप आने के क्षण तक
हम धरती के अडोल होने को
चिरंतन सत्य माने रहते हैं


 अपनी रश्मियाँ फैला कर
हम अपने लिए
आश्वस्ति का घेरा बनाते हैं
और इस घेरे की सुरक्षा में
अपने लिए संतोष की सीढियां 
बनाते जाते हैं

कभी जब छिद्र हो जाता 
इस घेरे की परिधि में
हम घबराते हैं
अपना कुछ 
छिन जाने की पीड़ा में
तिलमिलाते हैं

जाने-अनजाने 
 आवश्यकताओं के हाथ 
हमें बार-बार नचाते हैं 
अब आदत कुछ ऐसी है
सूरज की सीख को
अपना नहीं पाते हैं 



अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ३ बज कर १५ मिनट
२८ जून २०१०, सोमवार


2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

जीवन के अनुभव को जब शब्दों से व्यक्त करना हो तो अतिरिक्त अनुभव व शब्द दोनो ही घुस आते है । आपकी रचना अनुभव की विशुद्ध अभिव्यक्ति है ।

vandana gupta said...

बहुत ही बढिया और प्रेरक लिखते हैं आप्।

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