Saturday, June 19, 2010

पथ प्रदर्शक है प्रेम



शायद इस बार
शायद ये रास्ता
हो ऐसा कि
ख़त्म ना हो
गंतव्य तक पहुँचने से पहले
अधूरे रास्ते अपनाते-अपनाते
उभरता जा रहा है
मुझमें जो अधूरापन

उससे निकलने की छटपटाहट को लेकर
आज बैठ गया हूँ एक विशाल वृक्ष के नीचे

छाया मुझे माँ के तरह दुलराती है
जाने कैसे, सब व्यग्रता मिट जाती है
जाग गया है एक नया विश्वास
हो गया नए रास्ते का अहसास

बाहर नहीं, भीतर से चाहिए, रास्ते की पहचान 
आश्वस्ति है समस्या ही सुझाएगी समाधान 
उठ कर वृक्ष को कृतज्ञता से देख मुस्कुराया
इस कालातीत मौन की गहराई को अपनाया

लो, मुझमें 
अपने और संसार के लिए अपार प्रेम उमड़ आया 
पथ प्रदर्शक है प्रेम  
 बिना प्रेम के किसी को सही रास्ता नहीं दिख पाया
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ६ बज कर ३० मिनट
१९ जून २०१०











4 comments:

prerna argal said...

लो, मुझमें
अपने और संसार के लिए अपार प्रेम उमड़ आया
पथ प्रदर्शक है प्रेम
बिना प्रेम के किसी को सही रास्ता नहीं दिख पाया
bahut khoob.bahut saarthak rachanaa.badhaai.




please visit my blog.thanks

Yashwant R. B. Mathur said...

अच्छा लिखा है सर!


सादर

अनामिका की सदायें ...... said...

sach kaha prem sab raaste dikha bhi deta hai....aur sugam bhi bana deta hai.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बाहर नहीं, भीतर से चाहिए, रास्ते की पहचान
आश्वस्ति है समस्या ही सुझाएगी समाधान

बहुत सुन्दर प्रस्तुति

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...