Thursday, June 10, 2010

कोई भी 'दूसरा' नहीं रह जाता है

(पुल हिस्सा है रास्ते का, घर नहीं, क्यूं कर हमको इसकी खबर नहीं- चित्र- अशोक व्यास )

ये कौन है
जो मुझे हर दिन
भीतर से बदल जाता है
शायद वही जो
दिन और रात का
खेल रचाता है 
पर लाख कोशिशों के बावजूद
ये समझ में नहीं
आता है
इस खिलाडी का आखिर
मुझसे क्या नाता है

कभी कभी लगता है
वो मुझे पूरी तरह छोड़ जाता है
कभी यूं, कि
वो मुझे पूरी तरह अपनाता है

कभी मुझमें
कोई गहरा सागर सा नज़र आता है
कभी छोटी सी नदी
से भीतर कोई उफान सा उभर आता है

कभी तो यूं कि बड़ी-बड़ी ख्वाहिशों में
भी छल सा देता है दिखाई
और कभी छोटी सी बात पर भी अता है गुस्सा
हो जाती है किसी से लड़ाई

बाहर देखूं तो
ढेर सारे मोर्चे प्रकट हो जाते हैं
किसी अन्याय, किसी अपमान 
को लेकर आक्रोश जगाते हैं

भीतर देखूं
तो प्रेम, आनंद, शांति का वैभव
छलछलाता है
जिसे लेकर 
किसी और तक पहुंचना मुझे
नहीं आता है
शायद इसलिए कि
जब ये बोध होता है
तब एक होते हैं सब
कोई भी 'दूसरा' नहीं
रह जाता है

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१० जून २०१०, गुरुवार

1 comment:

vandana gupta said...

सच ………………उस परम आनन्द का तो कहना ही क्या।

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