अब भटकते भटकते
पूछते भी नहीं हैं खुदसे
कहाँ पहुँचने के लिए
शुरू हुई थी यात्रा
अब
जहाँ हैं
वहां जो कुछ आ जाता है सामने
उसी में
अपना आप
डुबो देने का
करते हैं असफल प्रयास
इस तरह खुदको तोड़ते
लहुलुहान करते
थकान और पीड़ा
का सामान भरते
हम
अब घाव लेने और देने को
मानने लगे हैं
जीने का पर्याय
इस दौर में
बारूदी सुरंग बिछे रास्ते से
गुजर रही है मानवता,
हम अधीर हैं
विचार उगने से पहले
ही
उन पर सही और गलत का
ठप्पा लगा देने
और यूँ भी होने लगा है
आरोपित विचारों के नीचे
धंसता जा रहा है जीवन
सृजनशीलता में
शांति और आनंद देने की
क्षमता धीरे धीरे घटने लगी है
इस दौर में
मौलिक सोच मरीचिका सी है
मूल तक जाने का धैर्य
बहुत दुर्लभ है
ऐसे में जब
प्रार्थना के सिवा और कोई
चारा नहीं है
हम संशय, प्रतिस्पर्धा और डर में
प्रार्थना करने की पात्रता भी
खोने लगे हैं
अब जब
प्रार्थना से अधिक महत्वपूर्ण
ये लगता है
कि किसी तरह खुद को बचाएं,
कहीं ऐसा ना हो
इस तरह जो बच पायेगा
उसमें हम अपना चेहरा
देख ही ना पायें?
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर १५ मिनट
शनिवार, २२ मई २०१०
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