Friday, May 21, 2010

चलो शाश्वत तुम जीते मैं हारा

(नदी की गति मद्धम, ठहराव का भ्रम                  चित्र- अशोक व्यास )

1
लहर से मित्रता करके भी
मिलना तो है सागर में ही
जहाँ
ना लहर का लुभावना रूप होगा
ना उसका बल खाता बहाव
मौज गहरे सागर की
क्या मिल सकती है मुझे
लहर में
अपना आपा खोये बिना?

२ 
ये रात दिन
मैं अपने साथ
अपनी साँसों में
जिस बोध को बचाने की सतर्कता के साथ
जीने लगा हूँ अब

अक्सर लगता है
यह बोध ही
बचाए रखता है
मुझे 

३ 
यह सब जो इतना सहज, सरल 
और आसान सा लगता है
यही
सारी घटनाओं, संबंधों,
भावनाओं, आवश्यकताओं
और अवसरों के बीच
एक तारतम्य सा 

यह सब शरीर
में छुपा हुआ
खाने-पचाने का क्रम,
देने और अपनाने की
भावना का प्रकटन
 
इस बहु-आयामी
सृजनात्मक, गतिमान
भवसागर को बनाने वाला 
कैसे करता है
व्यवस्था इस 
'नित्य परिवर्तनशील 
विस्तृत सृष्टि की' 

४ 
हो सकता है कि
मिटटी का घरोंदा बनाने वाले
बच्चे के खेल की तरह
यहाँ
मिटटी भी वही है
बालक भी वही
और घरोंदे को मिटाने वाली हवा 
या उछल कर आती लहर भी वही

हो सकता है
वही है सब कुछ
तो फिर 
क्यूं अलग लगता है 
सबसे
मुझमें यह
'मैं का बोध?

इस मैं को लेकर
सब कुछ पहचानने 
और
इस 'सतत विस्तृत होते सृष्टि रूप' 
का सार जानने 
इसे अर्थ देने का 
अनवरत प्रयास भी
क्या खेल है उसका
जिसमें मेरा हार जाना
पहले से तय है


चलो शाश्वत 
तुम जीते
मैं हारा

अब ये तो बताओ
अपनी हार मानने की 
घोषणा करने
किसी पहाडी पर जाऊं
या पर्याप्त होगा
तुम्हारे नाम 
समर्पण दीप जला कर
सांस नदी में 
निरंतर अर्पित करता जाऊं ?


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर १० मिनट
शुक्रवार, २१ मई २०१०



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