Tuesday, May 18, 2010

जहाँ तक देख सकता हूँ

(क्या प्रतीक्षारत होता है पथ ?   चित्र - अशोक व्यास )


 
१ 

जहाँ तक देख सकता हूँ
यहाँ से
तुम परे हो उस दृष्टिछोर के
इसीलिए चलता हूँ
पर चलते चलते पाता हूँ
तुम और दूर होते जाते हो


तो क्या ऐसा करूं
जहाँ हूँ
वहीं ठहर जाऊं
और
किसी तरह
अपनी दृष्टिसीमा का
अतिक्रमण कर पाऊँ
या फिर तुम ही कर दो
कुछ ऐसा
की मैं
दृष्टि सीमा के शाप से
मुक्त हो जाऊं


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१८ मई २०१०
मंगलवार, सुबह ६ बज कर 36 मिनट

No comments:

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...