(मेरे गुरु- स्वामी श्री ईश्वारानंद गिरी जी महाराज, संवित साधनायन, आबू पर्वत, राजस्थान) |
झरे हैं
मुक्ति के स्वर्णिम कण
मेरी गोद में,
चलने से पहले
वस्त्र झाडे थे
गुरु ने
पास ही में यहाँ
२
गुरु स्पर्श से
बालू भी
मुक्तिदायिनी बन जाती है
हर परिधि को चीर कर
अमित विस्तार को
सहज ही
अपनी हथेली में
रसीले फल की तरह दिखा
देते हैं गुरु
पर फिर
शिष्य की हथेली के स्पर्श से
अपना रस छुपा लेता है
यह चिर मुक्ति के स्वाद वाला फल
३
गुरु सर्वज्ञ हैं
पर सारा खेल
अपने वश में नहीं रखा उन्होंने
शिष्य के
आन्तरिक जगत की रश्मियों से
प्रभावित होता है
शाश्वत का फल
४
जितना बड़ा अधिकारी
उतनी बड़ी जिम्मेवारी
सृष्टा ने चाहा होगा सबको
महान बनाना
इसलिए हम पर निर्भर है
ईश्वर को अपनाना
या ना अपनाना
हम चाहें तो
जारी रख सकते हैं
यूँ ही भटकते जाना
या
देख कर
गुरु वचनों में
अनंत का मुस्कुराना
शुरू कर सकते हैं
उसकी ओर कदम बढ़ाना
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बजे
रविवार, १६ मई २०१०
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