मुखौटा लगा कर
नहीं बनती बात
धीरे धीरे
विनय और श्रद्धा के साथ
हटा कर
परत दर परत
प्रकट होता है
नवजात शिशु सा
नया चेहरा
सत्य का जब
तब बनती है कविता
२
कविता
अहंकार की बू से
दूर भागती
स्वीकार लेती
हर पीड़ा, हर व्यथा
दे सकती
हर घाव के लिए
मरहम
सुलझा कर हर उलझन
दिखा सकती है रास्ता
छल की छाया देख
अदृश्य होने वाली
सखी को
इस युग में भी
इमानदार ह्रदय चाहिए
३
कविता किसी दिन
चिड़िया बन कर आती है
कभी नदी
कभी सागर
कभी मेघ सी बरसती है
दिन-दिन नया रूप लेकर
हमें
रूप के बंधन से छुड़ाती है
मुक्त गगन तक ले जाती है
कविता में जब
सृष्टा की अकुलाहट
झांक जाती है
अनंत की करूणा से
प्रेम की बारह मासी
फसल लहराती है
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ६ बज कर ५५ मिनट
बुधवार, १२ मई २०१०
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