Tuesday, May 11, 2010

अच्युत की गति का गान




उसे देखूं
जो हुआ
या उसे
जो हो सकता था
या फिर उसे
जो 'होने' और 'ना होने' से परे है


वह 
जो होकर भी 'होने' में बंधता नहीं है
वह
जो 'ना होने' के घेरे में फंसता नहीं है
वह
जो नित्य मुक्त, 
सतत विस्तृत होती चेतना है
निराकार होकर भी
स्वच्छ, सुन्दर कैसे है इतनी
कि 
उसके बोध मात्र से
झरती है स्फूर्ति, आत्मीयता, करूणा
और
सुलभ हो जाता
वैभव आत्म-तृप्ति का

उसका यशोगान कर
उज्जीवित होता
मन
छू लेता सृजनात्मक शिखर सा
या
कोई एक अनाम 
लेता है मन में अंगड़ाई ऐसे
कि
छिन्न-भिन्न हो जाता
क्षुद्रता का ताना-बना

विराट का 
मधुर, मादक अट्टहास सा
गूंजता है
मेरी शिराओं में
ऐसे की
फूटती है
प्रेम गंगा
सांसो से

पिघल कर बहते हुए
इस तरह
मिटता नहीं
अमिट हो जाता है
कुछ मुझमें जो

जीवन शायद 
इसी अच्युत की गति का गान है


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर ४४ मिनट पर
मंगलवार, ११ मई २०१०

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