दुलार कभी ग्रीष्म का,
कभी शीत का
हर मौसम में
एक माँ है
एक माँ है
पुचकारने वाली
ताड़ने वाली
सवाल पूछ कर
निर्देश देने वाली
व्यवहार बदल कर
नए ढंग से
अपने आपको सहेजने का
संकेत लाता है
हर मौसम
2
सिकुड़ कर अपने आप में
नहीं रह सकते देर तक
बदन में
छुपी हुई हलचल
बाहर आकर
देना चाहती है
उसका परिचय
जिससे सब हलचल है
३
माँ
याद दिलाती है
बार बार,
जाओ अपने भीतर के
स्वर्णिम कोष तक,
प्रमाद में बैठ कर
भूल ना जाना
कि
तुम अनमोल हो
४
आस्था की किरण
श्रृंगार कर मन का
उन्ड़ेलती है
शाश्वत का उजियारा
एक सौम्य, सहज क्षण में
ऐसे में
मन को सहेजने की कला
जब सिखा रही थी माँ
तब ध्यान से सुनी होती उसकी बातें
तो शायद
घेर ना पाता
ये डर अनिश्चय का
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
६ बज कर ४० मिनट
सोमवार, १० मई २०१०
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