Saturday, May 8, 2010

जहाँ है ही नहीं मृत्यु


कई बार नए सिरे से
नक़्शे पर अँगुलियों से
टटोलता हूँ
लक्ष्य की ओर
ले जाती रेखाएं

हर दिन
किरणों को अपनी हथेली पर रख कर
सुनता हूँ
सूरज का सन्देश

हर दिन 
अपने आपको
सन्दर्भों से अलग
सम्भावना की एक
स्वंतंत्र इकाई की तरह
अपना कर
महसूस करता हूँ
एक चिर्मुक्त सौंदर्य

हर दिन 
काल की गर्द झाड़ कर
नए सिरे से
स्वच्छ होता हूँ

विनयशीलता की छाँव से
पोषित करते
कालातीत वृक्ष के नीचे
मिल जाते हैं
कृतज्ञता का आस्वादन कराते
मधुर फल

हर दिन
आनंद का नूतन परिचय देते
मन के एक हिस्से में
देख कर
करता हूँ प्रार्थना

मुझ पर किसी का 
ऋण ना रह जाए

बनते हुए
पावन प्रेम प्रसार का
आस्थावान माध्यम
मैं 
वहां जीवित होता हूँ
जहाँ 
है ही नहीं मृत्यु

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ८ बज कर ५० मिनट
शनिवार, ८ मई, २०१०

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