बैठे बैठे
अच्छा लगने की अनुभूति
आती है जब
तब तक हम
चढ़ चुके होते हैं
हाँफते हाँफते
कोई ना कोई हिस्सा
ऊँचाई का,
चढ़ना हो
या आगे बढ़ना है
बैठ कर अच्छा लगने से पहले
कर चुके होते हैं हम
एक यात्रा
आतंरिक यात्रा के लिए भी
आवश्यक हैं
बाहर की क्रियाएं
कुछ संशोधन
कुछ सुरुचिपूर्ण परिवर्तन
व्यवस्था जो विराट की है
विस्मयकारी है
जुड़ा हुआ है
बाहर और भीतर
कहीं ना कहीं
किसी ना किसी तरह से
अभ्यास करते करते
जब हम
साँसों के प्रयोग से
भीतर और बाहर का भेद
मिटाते हैं
अनूठे ढंग से
संसार के हर रंग को
अपनाते हैं
अकारण ही
मुस्कुराते हैं
बैठे हैं विराट की गोद में
ये जान पाते हैं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर २० मिनट
शुक्रवार, मई ७, २०१०
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