Tuesday, May 4, 2010

परिष्कार का प्रयास

(एक लघु फिल्म की शूटिंग हेतु, कैमरे के लिए सजने की प्रक्रिया )


और तब समय से
अपने अनुपस्थित होने का
मिल रहा था प्रमाण

नहीं पहुँच रहा था
लक्ष्य तक
अपना कोई बाण

हो ये रहा था
कि कुछ दे ही नहीं रहा था दिखाई
लोग नहीं थे
बस दिख रही थी परछाई


उसने सूक्ष्म रूप से
 पहाड़ की 
सबसे ऊँची चोटी पर जाकर 
जानना चाहा
क्या संभव है गति 
हर दिशा को अपना कर

३ 
सवाल सत्य का नहीं
सवाल हमारा होता है हमेशा
यदि हम सत्य है 
तो सवाल सत्य का है

जानना सत्य को नहीं
जानना तो अपने आप को है
कहते हैं
सत्य तो बदलता नहीं
पर हम तो 
बदलते रहते हैं दिन रात
तो क्या हम 'जो' हैं
वो सत्य नहीं है

अगर स्वयं को सत्य माने
तो अपने बहुत से हिस्से को
नकारना पड़ेगा

क्या ऐसा है कि
हमारा सत्य होना
किसी एक बिंदु से
प्रारंभ होता है
उसके पहले हम 'झूठ' होते हैं
और शायद
हम 'सच' और 'झूठ' के बीच
आते जाते रहते हैं

यदि ऐसा है कि
हम पुल हैं
सत्य और झूठ के बीच

तो क्या हम 'सत्य' से भी
बड़े नहीं हैं


यदि 'जीवन' सत्य है
और 'मृत्यु' झूठ
या 'जीवन' झूठ है
और 'मृत्यु' सत्य
तो इस तरह हम
'जीवन' और 'मृत्यु' दोनों से परे हैं


कभी कभी
हम सारा दिन
नींद में बिताते हैं
जहाँ भी जाते हैं
जुड़ाव नदारद
पाते हैं
दिन के दूसरे छोर
पर पहुँच कर भी
गति का अहसास
नहीं पाते हैं
6

कई सवाल
जब अनायास उठ जाते हैं
हम अपने आपको
बेवकूफ ठहराते हैं
फिर भी उनके साथ
बेमन से
कुछ दूर चलते जाते हैं
अपने आप उठे सवालों
को लेकर
किसी तरह जब 
खुदको छू पाते हैं,
आत्म-संतोष की
सुनहरी किरणों में
निखर जाते हैं



मुख्य बात है
खालीपन और
इस खालीपन से जंग,
जैसा भी
अपनाते हैं 
लड़ने का ढंग,
वैसे ही 
उभर आते है
नए नए रंग,

मुख्य बात ये है
कि पहुँच कर
खालीपन के पार 
जब अपने आप में
गूंजती है
पूर्णता की झंकार

तब सोचते हैं
की
यह 'पूरेपन की आश्वस्ति'
हमेशा रहने वाली है साथ,
पर ना जाने कैसे
छूट जाता है 
इस 'तन्मयता' का साथ


शायद कहीं ना कहीं
हममें
अपने शुद्ध रूप तक
पहुँच पाने की प्यास है
बस इसीलिए
कर्म के सहारे 
परिष्कार का प्रयास है 


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ६ बज कर ४० मिनट
मंगलवार, ४ मई , २०१०

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