१
अपना मन
शेर की मांद सा,
अन्दर जाते डर लगता है
२
तुम भी
एक बार देख लो,
तुम्हारा चेहरा
बदल रहा है
४
हम 'पुराने' से
चिपके चिपके
एक दिन जब
देखते हैं
'नयापन' उतर कर
स्थापित हो गया है
आँगन में,
सहसा घबरा जाते हैं
५
घबराहट क्या इस बात की
कि जो था
वो ना रहा
या
इस बात से
कि 'बीतते हुए कुछ'
के साथ
लगता है हमें
बीत गए हैं हम भी
६
हम बीतना नहीं
बने रहना चाहते हैं
ये जानते हुए भी की
बना हुआ कुछ भी नहीं रहता
ये समझते हुए भी कि
गति ही जीवन है
और
गतिमान रक्त, गतिमान सांस ही
दे रहे है आधार उसे
जिसे हम 'स्थिर' रखना चाहते हैं
७
गति बीत जाने में है
या
बीतते हुए को जीत जाने में है?
अपने आस पास
कभी कभी
कुछ सवाल भी
आलोक-वृत्त सा सजा देते हैं
बीतते हुए को जीतने का बोध लिए
स्वतः विलीन होता जाता
घेरा
आग्रह के बंधन का
और इस तरह
एक क्षण
जब हम
'होने' - 'ना होने' के प्रति आसक्ति से
परे निकल पाते हैं
कुछ ना होते हुए भी
सब कुछ हो जाते हैं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ८ बज कर १२ मिनट
रविवार, अप्रैल ११, २०१०
2 comments:
well done Sir,keep it up
Well Done Sir, Keep it up
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