Monday, March 29, 2010

देह ही नहीं हूँ मैं'


अब तक यूँ लगने लग जाता है
जैसे
कल ही जन्मा हूँ मैं
नहीं जानता कुछ भी
जगत के तौर-तरीकों के बारे में

एक कोरापन हर बात में
एक नयी सी नज़र
मुग्ध होकर मुस्कुराने की

वही पुरानी ललक
कि हाथ बढा कर
कह दूं माँ को
खेलते खेलते अचानक
 ले लो ना गोद में मुझे

हाँ एक अंतर है
अब किसी स्तर पर
गुरु कृपा से
पैठ गया है एक भाव
कि
'देह ही नहीं हूँ मैं'
और इसके साथ
जाग्रत 'मुक्ति का घेरा'
जिन स्थितियों के कारण 
सुरक्षित है
उन्हें निरंतर बनाने 
वाले सक्रिय पर निश्चल
विराट को 
अब माँ कह कर भी पुकारा करता हूँ
कई बार मचल कर 




अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सोमवार, २९ मार्च २०१०
सुबह ६ बज कर ३५ मिनट

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