कभी तो स्वर फूटते हैं
किसी शिखर से
और कभी अभिव्यक्ति में
छलकती है
कोशिश चढ़ाई की
आवाज़ हांफने की
छुपाते नहीं शब्द
साँसों के आने जाने की गति में
सुनता है
किसी का हारते हारते जीतने का हौसला
कोशिश एक स्वर्णिम शब्द है
कविता के साथ बैठ कर
इस शब्द को चमकाते चमकाते
नया हो लेता हूँ मैं
कविता हर दिन जन्म देती है मुझे
नव शिशु की तरह
नए सिरे से समझते हुए दुनिया को
पा लेता हूँ
एक अनछुआ उजाला
जिसे अनुभवों की परतों के पीछे
छुपा कर भूल जाता हूँ अक्सर
बात वही है
कोमलता की,
स्नेह, आत्मीयता
श्रद्धा, विश्वास की
२
इस मोड़ से अक्सर
लौट आता हूँ
हर बार
पर अबकी बार
लौटना नहीं
ठहरना है
ठहर कर दिखाने हैं
कविता ko
वो सारे घाव
जो हम एक-दूसरे को दे रहे हैं
बढा कर अविश्वास, संशय
खेलते हुए
बारूदी खेल
कर रहे हैं
लहुलुहान किसी को यहाँ
किसी को वहां
हम कब सुधरेंगे
क्या हम मिल जुल कर
देख पायेंगे कभी
एक होने का सौंदर्य?
क्यूं हम अपने अपने झंडो पर
अनंत लिख कर
एक संकीर्ण घेरा बना लेते हैं
अपने आस पास
कविता!
मुझे लगता है
तुम्हारे पास
इन युगों युगों से जागते
सुलगते सवालों का उत्तर नहीं है
या शायद
इस सतत समन्वित सौंदर्य के लिए
काव्यमय दृष्टि से ही
अपनाना होता जीवन को
३
अब देख रहा हूँ
बंदूकों को सीने से लगा कर
गोलियों की बौछार कर
इतिहास लिखने के तैय्यारी में जुटे
वो सब लोग
वो भी तो लेते हैं साँसे
उन्होंने भी तो जाना होगा
कभी
माँ की गोद का सौंदर्य
पर वात्सल्य छोड़
विध्वंस का सूत्र कैसे बन गए वो सब
४
अब जब
सारा विश्व एक युद्ध का मैदान सा
बनता जा रहा है
मरने मारने के इस सिलसिले को
पूर्ण विराम लगाना
क्या किसी के बस में नहीं?
कविता के पास बैठ कर
खुलता है जो भाव जगत
यहाँ से
नयी प्रार्थना शांति की
और समन्वय सिखाती समझ की
भेज रहा हूँ
सकल व्योम में
इसके साथ मेरी पीड़ा, मेरा दर्द भी है
इतना सुन्दर जीवन है
इतना वैभव है हर मनुज के अन्दर
इतना अनुपम उपहार दिया है सृष्टा ने
हम इसे यूँ ही गँवा रहे हैं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ७ बज कर ३४ मिनट
शनिवार,
13 मार्च 2010
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