ॐ
सृष्टि के प्रारम्भ में
क्या सचमुच
नाद ही था
एक स्पंदन
जिससे होता गया फैलाव
कामना के स्पंदनों का
फैलाव देखते
कभी कभी होता है विस्मय
२
सूर्य किरण उतर कर
सहलाती है जब
धरती को
मेरे भाल पर भी
करती है
उजियारे का तिलक
दीवारों के बीच
सुबह से शाम तक
जगमग स्क्रीन के सामने
ना जाने कब
पोंछ कर शुद्ध उजियारा
भूल ही जाता हूँ
अपने उजियारे और विस्तार से सम्बन्ध को
३
निशा में भी करुना है
लेकर अपनी गोद में
पुचकार कर
देना चाहती है
उजियारे के साथ
खेलने की पात्रता
४
सुबह शाम रात
खेल है जो
कामना के स्पंदनो का
खेल यह मेरा है
या मुझसे खेलने वाला
खिलाडी है कोई और
सुबह सुबह
खेलता हूँ
इस प्रश्न से
मैं खेल हूँ या खिलाड़ी
५
सहसा कौंध जाता है
बोध सा
साँसों में बैठा
कहता है कोई
'जब सतर्कता नहीं है
तुम खेल बन जाते हो
जब सतर्कता है
तुम ही खिलाडी हो'
६
सरल लगता है यूँ तो
रहस्य सारा
सतर्कता में छुपा है
साधना का मतलब
उजियारे के तिलक
का स्पर्श
दीवारों के बीच
भी जाग्रत रखना है
स्मृति में
तो इस तरह
जो स्मृति सफलता का सूत्र है
पंख है, उड़ान है,
विस्तार है
उसी स्मृति को
सौंप कर अपना आप
लो मुक्त हुआ
मैं इस क्षण
तुम्हारे साथ
यह पंक्तियाँ
हमारी
मुक्ति का उत्सव हैं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सुबह ९ बज कर १३ मिनट
बुधवार, १७ फरवरी २०१०
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