Tuesday, February 16, 2010

110- बाहर भीतर का भेद

बाहर जाऊं या भीतर
अभिव्यक्ति की पगडंडी पर
उठा कर अपने लिए यह सवाल 
बैठ जाता हूँ
दो राहे पर

२ 

क्या साथ साथ नहीं हो सकती
दोनों गतियाँ 
बाहर भी जाऊं
भीतर की गहरायी भी अपनाऊँ

पूछते पूछते
अनायास ही
हो गया प्रवेश
भीतर
३ 
अपने भीतर क्या जगह है
कितनी जगह है
क्यों जाना होता है
और इस आने जाने में
इंसान क्या पाता है
क्या खोता है


भीतर से बाहर ले जाने को
आतुर एक 'वृत्ति' ने
सरलता से
समझाते हुए कहा मुझे
'देखो
बाहर जितना भी खेलो
जितना भी खाओ
जितना भी कमाओ
जितना भी पाओ 
विश्राम तो घर पर ही होता है ना
ऐसे ही 
तुम्हारे भीतर तुम्हारा वो घर है
जहाँ शांति है, आराम है
और ऊर्जान्वित  होने का अद्भुत सामान है
इस ऊर्जा को लेकर बाहर जाओ
सुन्दरता बढाओ, श्रद्धा बढाओ, प्यार बढाओ
भीतर आ गए 
अच्छा है 
पर यहाँ बैठे ना रह जाओ

५ 

बाहर और भीतर मिल कर
ही
जीवन की सम्पूर्णता का अनुभव देते हैं 
 बाहर के सृजन
और भीतर के मनन में
पारस्परिक संवाद की
एक निरंतरता है

इस निरंतर लय में 
ऐसे रम जाओ
कि एक सूक्ष्म क्षण में
बाहर भीतर का भेद
भूल जाओ


अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
१६ फरवरी १० 
सुबह ८ बज कर ७ मिनट 

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