Monday, February 15, 2010

किसके लिए जल रहे हो?


बात बनाने के लिए
कितनी बार मिटाते हैं बात
हम क्यों भूल जाते हैं
सुन्दर लय का साथ

कभी कभी घिर कर अधीरता में
भुला बैठते हैं
जो कुछ भी 
पाई है सौगात

एकाकीपन बाहर से नहीं 
भीतर से आता है
तब, जब आश्वस्ति का भाव
कहीं खो जाता है

हम जलते हुए सवालों के सामने
निर्वस्त्र होकर
खड़े हो जाते हैं अकेले
यूँ मान कर कि
जलने के अलावा और कोई विकल्प है ही नहीं
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तप कर तो हम निखरते हैं
पर जल कर तो हम बिखरते हैं

तपने और जलने का अंतर
जो बताते हैं
हमारी भाषा में वो गुरु
कहलाते हैं
किसके लिए जल रहे हो?
गुरु जब ये सवाल उठाते हैं
तो उसके साथ
नयी दृष्टि लेकर आते हैं

कौन हो तुम?
गुरु जब ये सवाल उठाते हैं
तो हम स्वयं तक
नए रास्ते से पहुँच पाते हैं

सफलता और असफलता के बीच
आशा और निराशा के बीच
जो घाटी है
उसे गुरु
अपनी वात्सल्यमयी दृष्टी से
सहज ही पार करवाते हैं

आश्वस्ति के दो घूँट पीकर 
हम फिर श्रद्धा से जगमगाते हैं
पर समझ नहीं पाते हैं
कि क्यों कभी कभी हम
गुरु को भूलते हैं
और यंत्रवत होकर
यंत्रणा के समीप पहुँच जाते हैं

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
सोमवार, १५ फरवरी १० सुबह ८ बज कर १९ मिनट

2 comments:

संजय भास्‍कर said...

BEHTREEN RACHNA...

संजय भास्‍कर said...

हम जलते हुए सवालों के सामने
निर्वस्त्र होकर
खड़े हो जाते हैं अकेले
यूँ मान कर कि
जलने के अलावा और कोई विकल्प है ही नहीं

इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....

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