जैसे देखते हैं दर्पण में चेहरा अपना
ऐसे ही
शब्दों की चमक में
मन की उपरी सतह पर
झिलमिला कर आयी हुई
अनुभूतियों को
देख देख
सहेजता हूँ ऐसे
जैसे कोई संभल कर रखे
सीप में से मोटी
२
निर्धारित समय के बीच से
बहते हुए
बिना किसी तनाव के
अपनी मस्ती को बनाए रखते हुए
गंतव्य की तरफ बढ़ना
सीखना चाहिए नदी से
नदी के गीत सुनने
दूर कहाँ जाएँ
चलो कुछ देर बैठ कर
मौन में
सुन लें
सांस नदी का गुंजन
३
बात ये है की
रोम रोम में से फूट रही है
ज्ञान के आलोक की रश्मियाँ
जैसे हर कोशिका में समाया
है सार जीवन का
पर चुस्त हुए बिना
पहाड़ की पगडंडी पर ही
हाँफ जाते हैं
चोटी तक पहुँच
नहीं पाते हैं
और तत्पर हुए बिना
रोम रोम में रमते अनंत का
सूक्ष्म स्वर
सुन नहीं पाते हैं
हम सब बड़े मजाकी हैं
शोर मचा कर
शांति को बुलाते हैं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
रविवार, फरवरी १४, १० सुबह ८ बज कर ०७ मिनट
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