Tuesday, February 9, 2010

103- समझ तो बदलती जाती है


द्वार खोल कर
देख लिया यूँ ही
फिर एक बार
वैसे इंतज़ार तो नहीं था किसी का


अब यूँ हो गया है
धीरे धीरे
जो भी आता है
लगता है
मैं ही लौट आया हूँ
अपने पास
नया रूप लेकर


अब सहेजने का मोह भी नहीं रहा
जो है जैसा है
भला लगता है
इसका ज्यों का त्यों बने रहना,

और सत्कार का भाव है
बदलाव के प्रति भी 

बिना आग्रह ना जाने कैसे
वह सब होने लगा है
जिसका आग्रह रहा था कभी


एक दिन मैंने
गाँव के पहाड़ की
सबसे ऊपर वाली चोटी पर चढ़ 
दोनों बाहें उठा कर
कहा था उससे
ले लो गोदी में मुझे

शायद तब से 
वो गोदी में लिए लिए
सब कुछ करवा रहा है मुझसे

जब जब गोदी से उतरने की जिद करता हूँ
किसी को चोट पहुंचा बैठता हूँ
या फिर कोई ओर
चोट पहुंचा देता है मुझे

हाँ
इतनी ही समझ है

नासमझ हूँ
और नासमझी में
संसार के बदलते चेहरों को देख कर भी
बदलता नहीं मैं
समझ तो बदलती जाती है

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
९ फरवरी १० 
सुबह ६ बज कर ५१ मिनट पर

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