सांस धीरे धीरे
जब बन कर ज्योतिर्मय
प्रस्तुत होती है
कर लेने आरती तुम्हारी
ना जाने कैसे
इस तन्मयता में
हो लेती है
साथ मेरे
ये सृष्टि सारी,
२
यदि तुम हो
आदि-अंत से परे
सर्वव्यापी
अखंड, अजर-अमर अविनाशी,
और मैं
जन्म-मरण युक्त
सीमित-खंडित
इन्द्रियों के घेरे का वासी,
तुम नित्य आत्माराम
मुझे पीड़ित करता काम
तुम चिरमुक्त, सतत विस्तार पाती चेतना
मुझ पर छाया, अज्ञान का कोहरा घना
क्या तुम
अपना समग्र सौन्दर्य दिखला कर
फिर मुझे अपनी
क्षुद्र कोठारी में छोड़ जाओगे,
या अपने अक्षय रूप का वैभव
थोडा ही सही
मेरे बोध जगत में भी जोड़ पाओगे
तुम्हे जानने की चुनौती
यदि सिर्फ मेरी होती
तो तय था मेरा हारना,
पर तुम भी हो साथ
तो मिला आश्वासन
जीतने के लिए, पर्याप्त है तुम्हें पुकारना
अशोक व्यास,
न्यूयार्क, अमेरिका
१ दिसंबर 09 को सीयाटल में
विश्वयोगी विश्वम्जी महाराज के साथ
दत्तात्रेय जयंती समारोह के दौरान लिखी गयी पंक्तियाँ
३० जनवरी १० को प्रस्तुत
सुबह ७ बज कर ३९ मिनट
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