Friday, January 29, 2010

संशय का चश्मा



खेल सारा
जुडा हुआ है
कामना से ही,
जीतने का अर्थ
कामना की पकड़ में आने
और छूट जाने से
रखता है सम्बन्ध
तो फिर
खेल यह
कामना का हुआ ना?
मेरा खेल कहाँ है?
क्या मेरा होना भी प्रकटन है
किसी की कामना का?
कामना मुझे बनाती है
मैं कामना को बनाता हूँ
पर कोइ तो होगा
जो मुझे और कामना
दोनों को बनाता है

उसके पास धरा हुआ है
सम्पूर्ण वैभव
जिसे
धैर्य और उदारता से
बांटने को भी तैयार है वह
पर
अपने संशय का चश्मा लगाए
उसकी शोभा को नकारता
बना रहता हूँ बंदी
मैं अपने घेरे का
तो इस बार
यूँ करने की ठानी है
के अपने से पहले
कर दूंगा अर्पित
अपने सारे संशय उसको


अशोक व्यास

(दिसंबर १, ०९ की रचना
२९ जनवरी १० सुबह ७ बज कर ४२ पर प्रकाशित)

No comments:

सुंदर मौन की गाथा

   है कुछ बात दिखती नहीं जो  पर करती है असर  ऐसी की जो दीखता है  इसी से होता मुखर  है कुछ बात जिसे बनाने  बैठता दिन -...