Tuesday, January 26, 2010

खेल अपने ही आविष्कार का


एक क्षण में
कितना कुछ छुपा होता है

अनंत जैसे
हर क्षण में
छुप छुप कर
पुकारता है हमें

आओ मेरे गले लग जाओ

किसी भी रास्ते को अपना कर
आ सकते हो तुम
मुझ तक

चलो तो सही
रुक मत जाना
चलते चलते

लौट कर पुराने चिन्ह
ढूँढने की आदत
दूर रखती है मुझसे

सुनो
खेलो ना खेल
छोड़ कर अपने आपको
खेल विस्तार का
खेल सतत प्यार का
खेल अपने ही
आविष्कार का

देखो इस वैभव को
इस जगमाते सौंदर्य को
इस अथाह शांति वाले समुद्र को

यह सब जो तुम्हारा है
इस सीमातीत को अपनाने के लिए
खेलो ना
अब तो
क्षुद्रता छोड़ कर

हो कर साथ मेरे
करो रसपान संसार का


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
जनवरी २६, २०१०
मंगल्वाल, सुबह ६ बज कर ३१ मिनट

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