कितना कुछ शेष रहता है करने को
हर क्षण
यदि समेट कर ना बैठो अपने आपको
कई छोटी छोटी बातें
थप थपा कर मानस पटल
बुलाती है क्रिया की गलियों में
एक क्षण में क्या करें
क्या ना करें?
2
किसी एक क्षण
यह तो निश्चित लगता है
वह सब
जो जो करने को सोच लिया था
नहीं कर पाया
तो
एक दिन जब
करने की लालसा से परे
ले ही जायेगा समय
शिथिल कर शरीर को
उस क्षण तक
क्या ऐसा है
जो सबसे अधिक संतोष
सबसे अधिक पूर्णता का बोध
जगायेगा मेरे भीतर
३
सुबह सुबह करता हूँ प्रार्थना
ओ सृष्टा
प्यार लबालब छलछलाए
करुणा का भाव गहराए
सीमित और असीमित
एक साथ हूँ में
दोनों के बोध की संतुलित पहचान लेकर
दृष्टि और व्यवहार में
करता रहूँ उजागर
आत्मीय आनंद
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२४ जनवरी २०१०
रविवार, सुबह ७ बज कर १२ मिनट
एक ओर कविता
बात पूरी होते होते
कुछ है जो रह जाता है
कुछ अनकहा
कुछ अनदेखा
कुछ अनजाना
नहीं है
अंतिम वक्तव्य कोई
करने और ना करने
होने और ना होने के बीच
क्रिया और प्रतिक्रिया के बीच
यह जो विस्तृत क्षेत्र है
अनंत सागर सा
ओ विधाता
इस सबमें होकर भी
तुम परे हो इससे
और हम
किसी एक लहर की अठखेलियों में
गुम हो सकते हैं पूरी तरह
छुप्पा छुप्पी का ये खेल
अच्छी तरह नहीं सीख पाते कभी
अब बताओ
तुम जब छुपते हो
जानते बूझते छुपते हो
प्रकट हो सकते हो कभी भी स्वेच्छा से
हम छुपते हैं तो खेल भूल कर
भटकते ही रहते हैं
एक अज्ञात भय की कन्दरा में
तो क्या
तुममें और हममें
भेद
सचमुच जाने और ना जानने का ही है?
और किसी विलक्षण क्षण में
जान लेने की झलक मिल भी गयी
तो फिर इस जाने हुए की स्मृति कैसे ठहरे
सचमुच तुमसे पार पाना बहुत मुश्किल है
हरा कर ना सही
हार कर ही सही
तुम्हारे चरणों में शरण लेकर
हो तो सकता हूँ साथ तुम्हारे
क्या कहते हो
लो, अब तुम्हारे साथ ये देख कर
हंस सकता हूँ मैं भी
कि शरण में ही था तुम्हारी हमेशा से
बस देख नहीं पा रहा था
तो क्या
जीवन और कुछ नहीं
उसे देख पाने की क्षमता अर्जित करना है
जो है, पर दिखाई नहीं देता
तुम इस बार जब मुस्कुराये हो
तो लगता है
कह रहे हो मुझसे
'जीवन को किसी परिभाषा में
सीमित करने का प्रयास व्यर्थ है
क्योंकी जीवन जीवन है
तुमारी ही तरह असीम सम्भावना का
सृजनात्मक पुंज'
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
रविवार, जन २४, २०१०
सुबह ७ बज कर ३० मिनट
हर क्षण
यदि समेट कर ना बैठो अपने आपको
कई छोटी छोटी बातें
थप थपा कर मानस पटल
बुलाती है क्रिया की गलियों में
एक क्षण में क्या करें
क्या ना करें?
2
किसी एक क्षण
यह तो निश्चित लगता है
वह सब
जो जो करने को सोच लिया था
नहीं कर पाया
तो
एक दिन जब
करने की लालसा से परे
ले ही जायेगा समय
शिथिल कर शरीर को
उस क्षण तक
क्या ऐसा है
जो सबसे अधिक संतोष
सबसे अधिक पूर्णता का बोध
जगायेगा मेरे भीतर
३
सुबह सुबह करता हूँ प्रार्थना
ओ सृष्टा
प्यार लबालब छलछलाए
करुणा का भाव गहराए
सीमित और असीमित
एक साथ हूँ में
दोनों के बोध की संतुलित पहचान लेकर
दृष्टि और व्यवहार में
करता रहूँ उजागर
आत्मीय आनंद
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
२४ जनवरी २०१०
रविवार, सुबह ७ बज कर १२ मिनट
एक ओर कविता
बात पूरी होते होते
कुछ है जो रह जाता है
कुछ अनकहा
कुछ अनदेखा
कुछ अनजाना
नहीं है
अंतिम वक्तव्य कोई
करने और ना करने
होने और ना होने के बीच
क्रिया और प्रतिक्रिया के बीच
यह जो विस्तृत क्षेत्र है
अनंत सागर सा
ओ विधाता
इस सबमें होकर भी
तुम परे हो इससे
और हम
किसी एक लहर की अठखेलियों में
गुम हो सकते हैं पूरी तरह
छुप्पा छुप्पी का ये खेल
अच्छी तरह नहीं सीख पाते कभी
अब बताओ
तुम जब छुपते हो
जानते बूझते छुपते हो
प्रकट हो सकते हो कभी भी स्वेच्छा से
हम छुपते हैं तो खेल भूल कर
भटकते ही रहते हैं
एक अज्ञात भय की कन्दरा में
तो क्या
तुममें और हममें
भेद
सचमुच जाने और ना जानने का ही है?
और किसी विलक्षण क्षण में
जान लेने की झलक मिल भी गयी
तो फिर इस जाने हुए की स्मृति कैसे ठहरे
सचमुच तुमसे पार पाना बहुत मुश्किल है
हरा कर ना सही
हार कर ही सही
तुम्हारे चरणों में शरण लेकर
हो तो सकता हूँ साथ तुम्हारे
क्या कहते हो
लो, अब तुम्हारे साथ ये देख कर
हंस सकता हूँ मैं भी
कि शरण में ही था तुम्हारी हमेशा से
बस देख नहीं पा रहा था
तो क्या
जीवन और कुछ नहीं
उसे देख पाने की क्षमता अर्जित करना है
जो है, पर दिखाई नहीं देता
तुम इस बार जब मुस्कुराये हो
तो लगता है
कह रहे हो मुझसे
'जीवन को किसी परिभाषा में
सीमित करने का प्रयास व्यर्थ है
क्योंकी जीवन जीवन है
तुमारी ही तरह असीम सम्भावना का
सृजनात्मक पुंज'
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
रविवार, जन २४, २०१०
सुबह ७ बज कर ३० मिनट
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