Friday, January 22, 2010

नए आकारों से सजता आकाश


अब हो ही नहीं पाता
कि नंगे पाँव
सागर के किनारे सैर के लिए जाऊं,
किसी भी जगह
रेत पर बैठ जाऊं,
कहीं कोई खिंचाव नहीं है
ऐसा अनुभव अपने
भीतर पाऊँ,
और लहरों का
आना जाना
देखता जाऊं,

अब हो ही नहीं पाता
देर तक
किसी दरख़्त की छाया में
बैठ कर पढता रहूँ
कोई उपन्यास,
धूप का सरकना देखूं
और शाम के हाथों से ले लूं
भोर होने का विश्वास,

अब ये जो भागना दौड़ना है
इसके बीच
कैसे देखूं

नए नए आकारों से सजता आकाश,
कैसे पाऊँ
अपने साथ होने का
निश्चिंत, समन्वित अवकाश


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
शुक्रवार, जन २२, १०
सुबह ७ बज कर ४१ मिनट

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