गहरी सांस लेकर
ढूंढते हुए सृजनशील पथ का द्वार
मन ही मन
सृष्टा के नाम भेजता हूँ पुकार
उतरती है एक किरण
लिए उजियारे का नया उपहार
खनकता है गति का गीत
संवेदना को मिल जाता नूतन श्रृंगार
फिर बहने लगता ठहरा हुआ प्यार
मुस्कुराती उत्साह की प्रखर धार
आस्था ले आती हर बाधा के पार
रचना तब शुरू होती है
जब आते मेरे-तेरे के भेद से पार
आगे क्या है, दिखता नहीं
क्योंकि हमें ही तो रचना है संसार
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
जनवरी १९, १०
सुबह ७ बज कर ९ मिनट पर
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