Thursday, January 14, 2010

कृतज्ञता



अब तक जो हुआ
उससे अँगुलियों को हो गयी है पहचान
किस चाबी से कौन सा शब्द बन सकता है
अँगुलियों को
इस पहचान तक लाने वाले
मन की पहचान करने
लिखता हूँ कविता



मन को मित्र बनाने के जतन में 
खेलता हूँ
सुबह से शाम
तरह तरह के खेल

खेल भी सुझाता है मन ही
और खेल खेल में
अक्सर जीत जाता है
मन ही

अपनी हार पर मुझसे
कसमसाते देख
किसी सहानुभूतिपूर्ण क्षण में
कहता है मुझसे
'तुम्हे हार जीत से परे जाना है'

मैं जब
चुप चाप बैठ कर मन को देखता हूँ
कभी कभी
मेरे देखने मात्र से शांत हो जाता है
मुझे कृतज्ञता का पाठ
सिखाता है


जो मिला उसके प्रति कृतज्ञता
जहां हो, उस स्थान के प्रति कृतज्ञता
एक बार आत्मीय क्षण में
मन ने ये गोपनीय बात भी बताई थी
की
कृतज्ञता की किरणों के साथ
पूर्णता भी खुलती है
हमारे लिए

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अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका

दिसंबर १४, २०१०
 सुबह ७ बज कर ४० मिनट

2 comments:

kavita verma said...

मैं जब

चुप चाप बैठ कर मन को देखता हूँ

कभी कभी

मेरे देखने मात्र से शांत हो जाता है
bahut khub hai man ko swayam se alag dekh kar usame ekakaar ho jana.
sunder rachana.

Ashok Vyas said...

kavitaji
aapne achcha kiya
is baat ko kah diya

dhanywaad
aur vo sajhi muskurahat
jo ham sabko 'vivashta' se pare jaane
ka sambal deti hai

shubhkamnayen

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