अब तक जो हुआ
उससे अँगुलियों को हो गयी है पहचान
किस चाबी से कौन सा शब्द बन सकता है
अँगुलियों को
इस पहचान तक लाने वाले
मन की पहचान करने
लिखता हूँ कविता
२
मन को मित्र बनाने के जतन में
खेलता हूँ
सुबह से शाम
तरह तरह के खेल
खेल भी सुझाता है मन ही
और खेल खेल में
अक्सर जीत जाता है
मन ही
अपनी हार पर मुझसे
कसमसाते देख
किसी सहानुभूतिपूर्ण क्षण में
कहता है मुझसे
'तुम्हे हार जीत से परे जाना है'
३
मैं जब
चुप चाप बैठ कर मन को देखता हूँ
कभी कभी
मेरे देखने मात्र से शांत हो जाता है
मुझे कृतज्ञता का पाठ
सिखाता है
जो मिला उसके प्रति कृतज्ञता
जहां हो, उस स्थान के प्रति कृतज्ञता
एक बार आत्मीय क्षण में
मन ने ये गोपनीय बात भी बताई थी
की
कृतज्ञता की किरणों के साथ
पूर्णता भी खुलती है
हमारे लिए
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
दिसंबर १४, २०१०
सुबह ७ बज कर ४० मिनट
2 comments:
मैं जब
चुप चाप बैठ कर मन को देखता हूँ
कभी कभी
मेरे देखने मात्र से शांत हो जाता है
bahut khub hai man ko swayam se alag dekh kar usame ekakaar ho jana.
sunder rachana.
kavitaji
aapne achcha kiya
is baat ko kah diya
dhanywaad
aur vo sajhi muskurahat
jo ham sabko 'vivashta' se pare jaane
ka sambal deti hai
shubhkamnayen
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