Saturday, January 9, 2010

परिपूर्णता का उत्सव


एक दिन
हम अपना जीवन चलचित्र की तरह
चला कर
दिखाना चाहते हैं
अपनी संतति को

क्यों ऐसा होता है
की अपनी यात्रा के मोड़
बता कर
आने वाली पीढ़ी को
हमें लगता है
उन्हें दिखा दिया
वो जीवन भी
जो उनमें समझ आने से पहले
जिया था हमने



हम बताना भी चाहते हैं
जानना भी चाहते हैं
सुन कह कर
हर बार
लगता ये है की
यह क्षण जो अभी है
सामने है
बीते सभी क्षणों
और
आने वाले सभी क्षणों से
अधिक जगमगाता है

इस क्षण को
सुनहरा बनाने
छलछलाते प्यार
की निष्कलंक दौलत
लेकर आती है
कविता



इस क्षण को
सार गर्भित बनाने के
कितने सारे तरीके हैं
निर्णय इस समय से अपने सम्बन्ध का
ना मैं करता हूँ
ना समय
करता वो है
जो मुझसे परे है
और
परे है
समय से भी



अपने रोम रोम से
अपनी ऊर्जा के प्रत्येक कण से
अपनी समग्र चेतना को लेकर
देखता हूँ अनंत की ओर
रास्ते खुल जाते हैं
गति मिल जाती है

उसने ठीक कहा था
तुम कुछ मत करो
बस मेरी ओर देखो
कई बरस संदेह रहा इस बात पर

पर अब
ज्यों ज्यों
देख रहा हूँ ऋतुओं का बदलना

हवाओं का चलना

साँसों को आधार देती
एक सूक्ष्म ताकत को

देह में दिव्य का निवास
जताता है लहू का बहना

शानदार पाचन तंत्र

अद्भुत क्षमता और सम्भावना वाला है
हर एक अंग,

धूप, बारिश और बर्फ
सब कुछ होते रहते हैं
मेरे कुछ किये बिना

बढती है आश्वस्ति
हर दिन
मेरा होना उससे है
उसे देखने के प्रयास में ही
मेरी गति है

देखना उसे
बाहर की नहीं
भीतर की आँखों से है

इसलिए अनिवार्य है
प्रवेश अपने भीतर

कविता द्वार है, पथ है
और आमंत्रण है
इस यात्रा का

जिससे मैं
समर्पित होता हूं
उसे देखने को
जिसे देखने से सब कुछ होता है




ना देखूं उसे
तब भी होगा तो सब कुछ
पर इस सब का सार, इसका सौंदर्य
प्रकट तो ना होगा मुझ पर

ना ही प्रकट कर पाऊँगा
उस पर
अपनी कृतज्ञता

कविता
शाश्वत से सम्बन्ध जोडती है

विराट का आलिंगन करने
जब फैलती हैं मेरी बाहें
प्रेम से सारे जगत को अपना कर
तृप्त होता हूँ
सम्रद्ध होता हूँ
आनंदित होता हूँ

सबके साथ मिल कर
अपनी परिपूर्णता का उत्सव मनाता हूँ


अशोक व्यास, न्यूयार्क
जनवरी ९, १०
शनिवार
सुबह ७ बज कर २८ मिनट

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