Wednesday, January 6, 2010

होना ही जानना है


मेरे पास अब भी
किसी अनाम कोने से
निकल आता है वही सवाल
कौन हूँ मैं
कर क्या रहा हूँ
और क्यूं

सुबह सुबह
बैठ कविता की गोद में
जिद के साथ
मांगता हूँ
वो दर्पण
जिसमें दिख जाये चेहरा मेरा



मेरी पहचान क्या चेहरे पर चिपकी है

मेरी पहचान क्या
चेहरे तक आती है
किसी सूक्ष्म स्थल से कभी कभी

और तब क्या होता है
जब मैं सोचता हूँ
अपनी पहचान छुपा कर
करूं अभिनय
अपेक्षित भूमिका के अनुसार



मैं अब धीरे धीरे
अपने आप को सम्मोहित कर
जब उतरने को हूँ
सत्य के धरातल तक

हंस कर कहती है कविता
चढ़ना-उतरना भ्रम है
तुम जहाँ हो
परिपूर्ण हो



पूर्णता का परिचय ठहरता क्यों नहीं
क्या है जो
इसे चुरा ले जाता है मुझसे

सोच कर यह प्रश्न
देखने लग आकाश

हंस कर बोला आकाश
पूर्णता का परिचय मत पकड़ो
पूर्णता को जानो

जानने और मानने का मतलब
एक होने की अनुभूति में घुल जाना है

जब एक हो रहोगे तुम
पूर्णता के साथ

परिचय के चुराए जाने की चिंता ना रहेगी



आँख मूँद कर
करने लगा मनन
बात आकाश की
ठीक है क्या
क्या सचमुच मैं पूर्ण हूँ

पूर्ण होने का अर्थ क्या है

प्रश्न उठा तो
मन में से ही आवाज़ आई
पूर्ण होने का अर्थ
सुनने से नहीं जानने से पता चलेगा

जानना कोई क्रिया नहीं
होना ही जानना है



होना भी क्या होता है
मतलब 'मैं तो हूँ ही'
फिर कहाँ से आयी ना होने की बात

पूछा कविता से तो बोली

जब जब तुम अपने से अलग हो जाते हो
तब तब तुम होकर भी नहीं होते

सार है अपने से जुड़े रहने में

चाहे जितने बाहरी आकर्षण हो
बाहरी छल तुम्हे
चिंता या उद्विग्नता
उत्साह या प्रसन्नता का भाव दिखा कर पुकारें

उनसे जुड़ने की ललक में
अपने मूल से अलग ना हो जाना



मूल यानि 'आत्म सौंदर्य' की सौरभ
मूल यानि 'आत्म गौरव' का बोध
मूल यानि 'सतत प्रेम' का प्रवाह
मूल यानि 'उदारता अथाह'

मूल यानि 'असीम की नित्य शरण'

मूल यानि 'आडम्बर रहित जीवन'



मूल की सुनी सुनाई परिभाषाओं
से मुक्त होकर
करने लगा आंख मूँद कर मूल पर मनन

"विस्तृत होती चेतना का दरसन पाया
विराट की हथेली में बैठ कर मुस्कुराया

मूल मेरे आदि और अंत का स्थान ही नहीं
मूल मेरी नित्य स्थली है



मूल से जुडाव है
तो मौलिकता है
मौलिकता है तो सृजनशीलता है
सृजनशीलता है तो सौंदर्य है
सौंदर्यबोध है तो आनंद है
आनंद है तो अमृत का स्वाद है
अमृत का स्वाद है तो शांति है
शांति है तो प्रेम है
प्रेम है तो होना है

होना यानि प्रेम

प्रेमयुक्त हुए बिना
जो होना है
वो खंडित है
अधूरा है
अपूर्ण है

कविता की गोद से
प्रेम रूप होकर उठा
तो मेरी साँसों में
सूक्ष्मता से आ बैठी कविता
लेकर उपहार उस दृष्टि काजो सारे जग में
अपनेपन की आभा
छिटकाती है


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
बुधवार, जन ६, १०
सुबह ५ बज कर ५८ मिनट

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