Saturday, January 2, 2010

मुझे ही बनना होगा दर्पण


कितनी जल्दी
नयापन होने लगता है पुराना

हम बनाते रह जाते हैं
समय का बहाना

सोचते रह जाते हैं
किसी को मिलना, किसी को बुलाना

फिसल जाता है
हाथों से, आनंद का खज़ाना



शब्द सतह पर
जम जाती है
सोचे हुए विचारों की पपड़ी सी

अपने एकांत तक जाने से
रोकता है
जमा किये हुए
विचारों का शोर गुल

जहाँ जहाँ से गुजरते हैं
वो बातें
वो जगहें
हिस्सा हो जाती हैं हमारा
जाने अनजाने

कई बार
हम अपने अनजान हिस्से से
टकराते हैं
कभी कोई कसक
कभी कोई चिंता
कभी कोई आक्रोश
यूँ हमारे साथ चले आते हैं
जैसे किसी के दुपट्टे में
किसी झाडी से लग कर
आ जाए
काँटा कोई

ऐसे ही
कभी किसी सपने की आहट
कहीं निश्छल आशा की किलकारी
किसी के प्रेम की फुहार
किसी आनंदित क्षण में उतारा
संपूर्ण प्यार

अच्छा बुरा
सच्चा झूठा

बहुत कुछ रहता है
शब्द सतह पर
पपड़ी की तरह जमा हुआ
जो हमें
सचमुच हमारे एकांत तक
यानि हमारी शुद्ध मुक्त उपस्थिति तक
पहुँच पाने से रोकता है



क्यों इस एकांत तक
इस निरे एकांत तक
इस मुक्त एकांत तक
इस शुद्ध एकांत तक
जाने का आग्रह

क्या गलत अगर
बीत जाए ऊपरी मेले में ही
जीवन सारा



ना जाने क्यों
यूँ लगता है
अपने को जानना है
तो खोये-पाए से परे होकर ही
जाना जा सकता है

अपने को देखना है
तो हर आडम्बर से परे
हर छल को अलग हटा कर ही देखना होगा

दर्पण की सीमा है
वो तो बाहर है

अपने आपको देखने
मुझे ही बनना होगा दर्पण



उस समग्र दर्शन वाले क्षण का
शब्द चित्र बने या ना बने

उसे अनिर्वचनीय मौन का स्वाद
किसी को पता चले या ना चले

उस क्षण में शेष होकर भी
अशेष रहूँगा

ऐसी आश्वस्ति जो है
उनके शब्दों से आये है
जो मेरे होने का ही नहीं
सृष्टि के होने का भी प्रमाण हैं
मेरे लिए


अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
जन २, ०९ शनिवार
सुबह ६ बज कर ३८ मिनट

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