Saturday, December 26, 2009

बनो पुल



साफ़ सलेट सा मन
तुम्हारी स्मृति में भीग कर
हो गया है स्वच्छ
शब्दों कि इस नयी तश्तरी पर
सौंप रहा हूँ इसे तुम्हे

लो
लिखो आज कुछ ऐसा
जो मेरा तुम्हारा सम्बन्ध अमर कर जाए
कुछ ऐसा
जिसमें शामिल हो गान तुम्हारी महिमा का



तुम्हारी लिखाई
हर पहर
दिखलाती है
जब कल्याणकारी पथ
बहता है जब
निष्कलंक प्यार मुझसे
परिपूर्णता का स्वाद लिए
जाता हूँ जब
इस क्षण से उस क्षण तक
आनन्दित आभा में
बार बार होती है अनुभूति
तुम्हारे अक्षय सौंदर्य की

मेरी सार्थकता क्या
सौन्दर्यानुभूति मात्र है
क्या तुम्हारी अनुभूति का आनंद ही चरम है मेरे होने का

क्या क्या चाहा है तुमने
मुझसे
और यदि नहीं चाहा कुछ
तो क्या यह अपमान नहीं अपनी कृति का
किसी लायक तो समझना चाहिए था मनुष्य को


इस बार मेरे आरोप पर
मुस्कुरा कर संबोधित हो ही गया मुझसे
परमात्मा
'मैं चाहता था संवाद तुमसे
संवाद के लिए ही है
तुम्हारी इन्द्रियां, तुम्हारा मन
अपनाओ मुझे जैसे जैसे, जहाँ जहाँ संभव हो तुमसे
उपस्थित हूँ तुम्हारे चारो ओर
तुम्हारे भीतर भी
बनो पुल
बनो पुल
यही है अपेक्षा'

पर पुल तो बनते हैं
टूट जाते हैं
फिर क्या लाभ?
'भूल गए
कहा था
हानि-लाभ से परे रहने को'

टूटने- जुड़ने की चिंता से परे
तुम करते रहो
मेरा काम

बनो सक्षम
बढाओ क्षमताएं
बढाओ सम्रद्धि
जगा कर उत्साह
लेकर समस्त सृजनशीलता
होकर समन्वित
अपने साथ और ओरों के साथ भी
करो अनुष्ठान
जुड़ने और जोड़ने के इस यज्ञ का
जुड़ो प्रेम लेकर
जुड़ो शांति लेकर
जुड़ो आनंद लेकर
जुड़ो मुझे लेकर
पहुँचो मुझ से मुझ तक
छोड़ कर हानि लाभ की चिंता
खेलो मेरे साथ
हर पग पर
ऐसे
की खेल खेल में
होता रहे हमारा
मिलना बिछड़ना'

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
दिसंबर २६ ०९ शनिवार

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