क्या ये नहीं हो सकता
की खुला रहे
ताजगी का वैभव
नूतन आलोक में भीगा मन
सुने पवन में
सांवरे की बंशी
क्या ये नहीं हो सकता
की अशुद्ध करते, कुंठा और क्षोभ बढ़ाते भाव
तत्क्षण
मिटा दे
किसी का स्पर्श
हर दिन कविता की गोद में
जगा कर शाश्वत कोमलता
महसूस करता
आवरण मधुर मौन का
घेर कर मुझे
पोषित करता है
कालातीत के चिर स्वच्छ स्पंदनों से
इस तरह
ज्योतिर्मय अनुबंध का स्मरण
उज्जीवित कर
धर देता साँसों में प्रसाद
एक उसका
जो है
जो था
जो रहता है हमेशा
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
दिसंबर १७, गुरुवार
सुबह ८ बज कर ४४ मिनट पर
की खुला रहे
ताजगी का वैभव
नूतन आलोक में भीगा मन
सुने पवन में
सांवरे की बंशी
क्या ये नहीं हो सकता
की अशुद्ध करते, कुंठा और क्षोभ बढ़ाते भाव
तत्क्षण
मिटा दे
किसी का स्पर्श
हर दिन कविता की गोद में
जगा कर शाश्वत कोमलता
महसूस करता
आवरण मधुर मौन का
घेर कर मुझे
पोषित करता है
कालातीत के चिर स्वच्छ स्पंदनों से
इस तरह
ज्योतिर्मय अनुबंध का स्मरण
उज्जीवित कर
धर देता साँसों में प्रसाद
एक उसका
जो है
जो था
जो रहता है हमेशा
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
दिसंबर १७, गुरुवार
सुबह ८ बज कर ४४ मिनट पर
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