Tuesday, December 8, 2009

मौन की पगडंडियों पर


क्या सम्भव है एक साथ
बाहर सक्रिय रहते हुए
भीतर की आनंदरस धार स्पर्श की अनुभूति

प्रश्न लेकर
उतरा जब
अपने भीतर
मौन की पगडंडियों पर
भीनी भीनी गंध थी
कृपा की

वृक्षों और लताओं का
सम्बन्ध था जो
सांवरे के साथ
गीत उसके
गा रही थी पवन

एक अपरिभाषेय उल्लास सा
छाया था भीतर

और उस एक क्षण
जब मिट सा गया
भेद
बाहर भीतर का

मुझे लगा
मुस्कुराया नंदलाल

जब जब
जहाँ जहाँ भेद मिट जाता है
वो गुनगुनाता है
उसके मर्म में 'एकत्व' की गाथा है


बाहर की हलचल में
नहीं जा पाता ध्यान
भीतर के अद्वितीय मौन पर

देखे बिना
श्रवण के आधार पर
मान लेते हैं हम
की
छाया है साम्राज्य अनंत का
जगमगा रही है आत्म-सम्पदा
प्रेम के अक्षय स्रोत तक
पहुँच कर
खिल रहा है
सौंदर्य संवेदना का

नित्य नूतनता की आभा में
करते हुए स्नान
कहीं कोई अंश मेरा
पुनः हो रहा नूतन

ऐसे की
सारे जग को देखता हूँ
नवजात शिशु की तरह

और मुग्ध हो लेता हूँ
कण कण पर

इस बार ना भेद है
ना अभेद
ना मैं ही
बस एक है
वह
जो होता है, जो रहता है
उसके रहने को नमन कर,
उसकी महिमा गाने को
हो रहता अलग उससे

इस तरह
जीवन अपनाता हूँ
और उसकी उपस्थिति
का उत्सव मनाता हूँ






अशोक व्यास
न्यूयार्क
मंगलवार, दिसम्बर ८, ०९
सुबह ७ बज कर १ मिनट

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