झुंझला कर कह देना था
सूरज को
ये क्या अभी तो चढ़े हुए थे
अब ढलने लगे
इतनी प्रखर थी धूप जो
कहाँ भेज दिया उसे
और क्यों दे दी अनुमति बादलों को
की ढक लें तुम्हें
उकता कर कह देना था
हवा को
अभी कुछ देर पहले तो
साथ लाई थीं
महक मनमोहन वाली
और अब उठा लाई हो
दम तोड़ती कामनाओं का विलाप
आँख मिला कर कह देना था
समय को
देखो ऐसे नहीं चलेगा
की जब चाहो बहलाओ
जब चाहो नचाओ
जब चाहो बिठा कर
शिखर पर गुदगुदाओ
और फिर पलटो इस तरह
की अपरिचित बन जाओ
पर ना समय को, ना हवा को, ना सूरज को
किसी से कुछ नहीं कहा
कहा सब कुछ अपने आप से
और अपनी कहा-सुनी लेकर
प्रविष्ट जब परम मौन में हुआ
सब कुछ मधुर, समन्वित और सुंदर हुआ
ना झुंझलाहट, ना उकताहट, ना शिकायत
बस एक निश्छल प्रेम नदी की कलकल का स्वर रहा
कान्ति करुणा की घोल कर मेरे अस्तित्त्व में
मुस्कुराता रहा विराट
अशोक व्यास
नवम्बर १८, ०९
न्यू योर्क, अमेरिका
सुबह ६ बज कर ४० मिनट
सूरज को
ये क्या अभी तो चढ़े हुए थे
अब ढलने लगे
इतनी प्रखर थी धूप जो
कहाँ भेज दिया उसे
और क्यों दे दी अनुमति बादलों को
की ढक लें तुम्हें
उकता कर कह देना था
हवा को
अभी कुछ देर पहले तो
साथ लाई थीं
महक मनमोहन वाली
और अब उठा लाई हो
दम तोड़ती कामनाओं का विलाप
आँख मिला कर कह देना था
समय को
देखो ऐसे नहीं चलेगा
की जब चाहो बहलाओ
जब चाहो नचाओ
जब चाहो बिठा कर
शिखर पर गुदगुदाओ
और फिर पलटो इस तरह
की अपरिचित बन जाओ
पर ना समय को, ना हवा को, ना सूरज को
किसी से कुछ नहीं कहा
कहा सब कुछ अपने आप से
और अपनी कहा-सुनी लेकर
प्रविष्ट जब परम मौन में हुआ
सब कुछ मधुर, समन्वित और सुंदर हुआ
ना झुंझलाहट, ना उकताहट, ना शिकायत
बस एक निश्छल प्रेम नदी की कलकल का स्वर रहा
कान्ति करुणा की घोल कर मेरे अस्तित्त्व में
मुस्कुराता रहा विराट
अशोक व्यास
नवम्बर १८, ०९
न्यू योर्क, अमेरिका
सुबह ६ बज कर ४० मिनट
1 comment:
bahut badhiya likha hain aapne
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