Wednesday, November 18, 2009

बढ़ जाता है विस्मय



भागते समय की सांसों में
कैसे सुरभित होता है
शाश्वत
तुम्हारे समीप,
विस्मित होकर
शुद्ध सौंदर्य को देख
जब लौटता हूँ
अपने पास
बढ़ जाता है विस्मय
यह देख कर कि
सौरभ शाश्वत की
हो रही महसूस
अपने आस पास भी

ये जादू सा
तुम्हारा है
या मेरा


लौटने को था
पर
बुलावा क्षितिज का
नहीं कर पाया अनसुना
चलते चलते
जान लिया

भ्रम ही है हमारा
कि आसमान से मिल जाती है
धरती कहीं

अब फिर एक बार
हर नयी पहचान में
दिखाई दे रहे हो तुम
यूँ कि
लगता है
हर चीज़ को पहचान मिली है
तुम से ही
या शायद ये हो
कि तुम्हें पहचानने के बाद
जो कुछ नया होता है
उस पर
छाप रहती है
तुम्हारी आशीष की

इस पल
अपने ह्रदय में
जो शान्ति है
उसका चित्र शब्दों तक पहुँचाने
बैठे बैठे
और कुछ हो ना हो
गहरा रही है
यह अनाम शीतलता
अहा!
इस मौन में
ओस की बूँद सा
उतर कर बिछ सा गया है
जो ह्रदय में,
क्या ये तुम्हारी
दृष्टि के वात्सल्यमयी आकाश का
ही उपहार है

शायद इसी तरह
बांटते हो
तुम अपने आप को
पूरी उदारता से

बढ़ाते हो
शान्ति, सौंदर्य, श्रद्धा
अनिर्वचनीय आनंद,


आतंरिक उल्लास
से परिपूर्ण

करता हूँ विचार

जैसे तुमने दे दिया है मुझे
अपना आप

क्या मैं भी
कर सकता हूँ अर्पित
स्वयं को
इस विराट सागर में
जो परिचय है तुम्हारा

तुम्हारे असीम वैभव पर
अब भी
अचरज है

तुम्हारी करुणा में
अब भी भीगा भीगा हूँ

ऊँचे शिखर पर
अपना आत्म-दीप जला कर
कर रहा हूँ आरती

और मुस्कुरा रहा है
मेरी हृदय पीठ में
विराजित देव

यह दुर्लभ मौन
यह अलौकिक क्षण
यह सुंदर तन्मयता
यह चिर विश्रांति की छाँव
अब
मेरे रोम रोम से
झर रही जो
निश्छल प्रसन्नता की कांति
यह कविता से भी परे की सी है

कविता
वह आंख है
जो इस अद्वितीय अनुभूति को
सहेजती है
सहज ही

और सौंप देती है
मुझे मेरी दौलत

इस तरह
अतीन्द्रिय का
इन्द्रियों से परिचय करवाती
है कविता

अशोक व्यास
नवम्बर १८, ०९ सुबह ८ बज कर ३२ मिनट पर
(समर्पित- विश्वयोगी विश्वमजी महाराज की सन्निधि को- उनकी वेबसाइट www.viswaguru.com)

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