Saturday, October 31, 2009

कौन किसे अपनाये


फिर एक बार लिख लिख कर
मिटाए शब्द
बात के बहाव में
मेरी जिद की परछाई थी

यह घमंड भी
की मैं कर सकता हूँ
मैं बना सकता हूँ

फिर जो भी हुआ
उसमें नदी थी, आसमान
ना ही सुनाई दी नूतनता की किलकारी

फूल ऐसे खिले की खिलते ही मुरझा गए
गति के पास जगह ही नहीं थी नृत्य करने के लिए


कभी कभी
मेरी क्षुद्रता के कारण सीमित हो रहता है
संसार मेरा
कभी इतना घुटन भरा कि
लगे छोड़ ही दूँ इसे


सोचता हूँ
उस क्षण
जब मैं पारदर्शी हो जाऊँगा
मुझमें से होकर निकल सकेगा उजाला
तब मैं उजाले को अपनाऊंगा या उजाला अपनायेगा मुझे

या शायद जब सब कुछ एक हो
तो अर्थहीन जो जाता है
यह प्रश्न की किसने किसको अपनाये

अशोक व्यास
अक्टूबर ३१, ०९
9:24am
न्यू यार्क

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