आहटों की टोह लेता
राह में
कब से डटा हूँ
रुक गया था
बढ़ते बढ़ते
रुकते रुकते
मैं घटा हूँ
बरसता बादल
कहाँ है
लुप्त क्यों
जो कह रही थी
मैं हूँ बदली
मैं घटा हूँ
२
एक निर्जन वन
बना है नगर सारा
सब हैं लेकिन
शून्य सा क्यूँ
सब को सब
अच्छा लगे पर
मैं क्यूँ इतना
अटपटा हूँ
दौड़ना तय
था सभी का
भागते दीखते
मनुज सब
ट्रैक से मैं
क्यों हटा हूँ
३
शांत वन में
मगन मन में
कैसी नीरवता सुहानी
चुप अनूठा
जोड़े सबसे
जबसे मैं
सबसे कटा हूँ
आहटों की टोह लेता
राह में
कब से डटा हूँ
रुक गया था
बढ़ते बढ़ते
रुकते रुकते
गंगा हूँ
शिव की जटा हूँ
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१७ जनवरी २०१८
9 comments:
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १९जनवरी २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
वाह!!!
बहुत ही सुन्दर....
लाजवाब रचना
बहुत बढ़िया!!
सुंदर !
श्वेता सिन्हा जी, सुधा दवरनी जी, विश्व मोहन जी और मीना शर्मा जी आपने ये कविता पढ़ी, इसके बारे में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने का कष्ट कर मेरा आनंद और उत्साह बढ़ाया, आपका बहुत बहुत मंगल कामनाओं के साथ धन्यवाद! भाषा और अभिव्यक्ति के स्वरूप में साम्यता से भी एक प्रकार का विशेष परिवार सा भाव जाग्रत होता है, इस भाव को जाग्रत रखते हुए आप अपने अपने सृजन पथ पर संतोष और माधुर्य प्राप्त करें ऐसे विशेष शुभ कामना, माँ सरस्वती को समर्पित वसंत पंचमी उत्सव की अग्रिम बधाईयाँ!- अशोक व्यास
वाह ! बहुत सुंदर प्रस्तुति ।
बहुत खूब महाशय।
वाह
बहुत सुंदर रचना मन को छूती हुई
बधाई
बहुत सुंदर
Post a Comment