Monday, July 4, 2016

हाँ मैं पागल सरीखा हूँ




यही होता है
बरसों से
मैं सब कुछ भूल जाता हूँ
जो पाना है
जो खोया है
सभी के पार जाता हूँ

मेरे घर की ही देहरी पर
फिर से खुद को बुलाता हूँ

ये किस्सा है बड़ा ज़ालिम
इसे सबसे छुपाता हूँ

हुनर ये अपने होने का
न जाने क्यूँ गंवाता हूँ

यही होता है
देखा है
ख्वाहिशे छोड़ आता हूँ
पहाड़ी रास्तों पे फिर
मुक्ति के छन्द गाता हूँ

क्या पाया
और क्या खोया
बही- खाते भुलाता हूँ
परे खोने औ' पाने के
यूँ ही बस मुस्कुराता हूँ

ये एक
स्वर्णिम सी अनुभूति
साथ ले बैठ जाता हूँ
ये चुप्पी
माँ के जैसी है
यहाँ में पनप जाता हूँ

और माँ के कहे चल कर
मैं अपनी मैं भुलाता हूँ
कभी ऐसा भी लगता है
मैं बन बन मिटता जाता हूँ
कभी ऐसा भी लगता है
अरे मैं ही विधाता हूँ

माँ मन के खेल देखे है
मैं जब ये जान जाता हूँ
फिर से चुप के अहाते मैं
मौन गंगा नहाता हूँ

हाँ मैं पागल सरीखा हूँ
मैं सब कुछ भूल जाता हूँ
किसी क्षण के झरोखे से
मैं खुद के पार जाता हूँ

सैर ये अनकही कह कर
याद जुगनू बुलाता हूँ
मैं सदियों से यही तो हूँ
न आता हूँ, न जाता हूँ

अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
४ जुलाई २०१६


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