Sunday, November 9, 2014

विस्मित करता क्षण

कविता मेरी 
अब निकल कर मेरे आँगन से 
जा पहुँची है मैदान में 

और मैं 
इसके विस्तार से अनभिज्ञ 
इस अब भी 
सहेज कर सुला देना चाहता हूँ 
ठण्ड से बचाने 
सुरक्षित लिहाफ में 

२ 

कविता मेरी 
आतुर है 
मुझे  सम्बन्ध के नए समीकरण का 
रूप दिखाने 
नहीं रुकती 
अब वो मेरे पास 
यूँ ही बतियाने, मुस्कुराने, खिलखिलाने 

कविता मेरी 
अब छोड़ रही है 
पुरानी ज़मीन 
भरते हुए नई उड़ान 
इस तरह दे रही है 
मेरी और ध्यान 

जैसे दे रही हो 
 की पहचान 

३ 

मेरी ही हो न तुम 
मेरी ही रहोगी न तुम 
मैं अब भी 
आश्वस्ति 
आश्वासन 
भरोसे की नई मुहर मांग रहा हूँ 
कविता से 

और सहसा 

पुष्प कालातीत वृक्ष के 
मेरी चेतना पर 
उतर आये न जाने कहाँ से 

४ 

कविता 
छोड़ रही है 
सन्दर्भों का घेरा 
पूरी तरह मुक्त 
सर्व व्यापी कविता 
मेरी कैसे हो सकती है 

यदि मैं हूँ 
यह सीमित 
आकार 
हाड-मांस का 

५ 

कविता 
न मेरी 
न तुम्हारी 

हमारे होने की कालबद्ध रेखाओं से परे 
एक आधार 
कविता मेरी 

छूट कर मुझसे 
मुक्त होते होते 
दिखला रही है 
मुक्त स्वरुप मेरा 

६ 


 कविता अब 
आवश्यकता नहीं 
आनंद है 
उत्सव है 
गीत मेरे होने का 
 कोई सुने ना सुने 
कविता 
 मेरे होने की 
अनवरत गूँज का 
एक अंश 
जिसमें झिलमिलाती है 
पूर्णता मेरी 


इस झिलमिलाहट को 
नहीं बाँध सकता मैं 
न ही बंधना है 
इसकी दीप्त आभा में 

कविता 
नदी के सागर मिलन का 
विस्मित करता क्षण 
रसमय करता जीवन 
इस मिलन उत्सव में 
सम्मिलित होने का 
निमंत्रण 

अशोक व्यास 
न्यूयार्क 
८ नवम्बर २०१४ 


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