Thursday, October 16, 2014

शुरू हो चुका है नाटक


 खेलने एक नाटक 
धकेला तो गया है मंच पर 

पर बताया तो नहीं गया 
कब हटेगा पर्दा 
 कहाँ बैठे हैं दर्शक 
और 
यह भी तो नहीं पता 
कब मंच से उत्तर कर 
बैठ जाना है 
दर्शक दीर्घा में 
 
अवसर जो है उपलब्ध 
पहचान इसके महत्त्व की
आई नहीं साथ 
 
शुरू हो चुका है नाटक 
बीत रहा है समय 
 
लेखक - निर्देशक सब 
बैठ गए हैं छुप कर 
पात्रों के भीतर 
फिर भी 
अंतिम दृश्य तक 
पहुँचते पहुँचते 
अस्पष्टता 
अपनी भूमिका के प्रति 
बनी रह जाती 
ज्यों की त्यों 
ऐसा क्यों ?
 
अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
अक्टूबर १६, २०१४

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