यह क्या है
एक शिथिलता सी
निश्छल हो रहने अडौलपन में रमने
चुप धरे रहने का मन
इस ठोस सी चुप्पी में
क्या नया रूप
ढूंढ रहा है जीवन
या गति साथ का
हो रहा है मंथन
यहाँ
मैं भी खड़ा हूँ
प्रवेश द्वार पर
मेरा होना
टंगा हुआ है
जैसे कगार पर
शायद मौन में
बन रहा हो
अर्थयुक्त होने का गीत
शायद
मेरी अनुपस्थिति में ही
प्रकट होता सार-संगीत
यह निश्चलता
यह जड़ता से पल
शायद पुनर्व्यस्थित
कर रहे
भीतर की हलचल
शायद इन पलों में
जब मैं गढ़ा जा रहा हूँ
रुके-रुके भी
गंतव्य की और बढ़ा
जा रहा हूँ
शायद इस तरह
आ पाऊंगा
इस मुगालते के पार
की मेरे किये से
चल रहा है मेरा संसार
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
जुलाई २०१४
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