आस्था का आलोक दिलाये है सम्बल
बीत ही जाएगा, पीड़ा सा यह पल
सांसों में सहेज भाव शाश्वत शीतल
पावन करता हर अनुभव को गंगा जल
वह जो है एक
गाता जो मुझमें
शब्दातीत स्वर्णिम आलोक सा
शब्दातीत स्वर्णिम आलोक सा
कभी कभी
पोंछ कर सारे प्रभाव
एकदम स्वच्छ, निर्मल, नूतन
बना देता मुझे
प्रस्तुत सकल व्योम का
स्वागत करने
इस क्षण
परे हर पहचान के, नहीं जानता
अपने इस सन्दर्भ मुक्त स्वरुप को
किस संज्ञा से परिभाषित करूँ
बस इतना जानता हूँ
जिसके होने से मेरा होना है
वह उंडेल रहा
वात्सल्य मुझ पर
सहेज कर
सहेज कर
यह दृष्टि विस्तार की
जिस तरफ भी
देखता हूँ
दीखता है
एक वही
जिसके होने से है
मेरा होना
ॐ
२८ मई २०१४
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