१
कहाँ गया वो
वो
जो हर दिन कविता लिखता था
तृप्ति के घूँट पी पीकर
मगन अपने आप में
अभिव्यक्त हो होकर
स्वर्ण कमल सा खिलता था
कहाँ गया वो
वो
जिसके लिए
कुछ भी पाने से अधिक
वह हो जाने की यात्रा तय करना
महत्वपूर्ण था
जिसमें खिलता था
उसकी पूर्णता का बोध
कहाँ गया वो
जिसमें आश्वस्ति थी
अभिव्यक्ति की पगडंडियों पर
सहसा
किसी अनजान मोड़ पर
आ मिलेगा
अनंत अनायास ही
कहाँ गया वो
जिसकी श्रद्धा का
न ओर था न छोर
वह
विस्तार का सखा
अपनी सृजनात्मक अकुलाहट के साथ
क्या किसी जरूरत के पर्वत से
दब गया
या संदेह के वन में
लुप्त हो गयी
उसकी वो साँसे
जिन पर
कविता प्रसून पल्लवित होते थे
२
जहाँ भी है वो
कभी कभी
बहुत याद आता है
उसकी कुर्सी पर बैठ कर
झूठ मूठ
शब्द बुला कर
कवि होने का स्वांग भरते हुए
किसी
एक अयाचक क्षण में
न जाने क्यूँ लगा
वो गया नहीं कहीं
है मेरे आस पास ही
बस छुपा छुपा सा है
मेरी बाज़ारू दृष्टि से
बचता बचाता
मौन में भी
जीवित रखे है
अपनी शाश्वत सत्ता
जो
नित्य मुक्त है
चाहे प्रकट हो
या अप्रकट रहे
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
१३ नवंबर २०१३
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