पुराने पन्नो से
सहेजता हूँ
अपने ही शब्द
जो समय के साथ
न जाने कहाँ से
ले आते हैं नयापन
जो पुराने की परिधि पार
जगमग करता है
ना जाने कैसे
अपने आप
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ॐ
यह
मंथर बहती नदी
मद्धम गूंजते चिरंतन गीत
समेत कर
अपनी बाँहों में
ध्यानस्थ है
विराट का मौन
आज
बस यह अदृश्य यात्रा
और समर्पित
इसी को
सब कुछ अपना
२ जुलाई २०१३
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ॐ
यह
मंथर बहती नदी
मद्धम गूंजते चिरंतन गीत
समेत कर
अपनी बाँहों में
ध्यानस्थ है
विराट का मौन
आज
बस यह अदृश्य यात्रा
और समर्पित
इसी को
सब कुछ अपना
२ जुलाई २०१३
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१
जो है यह
मेरा होना
यहाँ- वहां
ऐसे-वैसे
अलग- अलग
मनःस्थितियों को
भोगता हुआ
मैं
विस्मृत कर
अपने होने का तात्पर्य
कभी बिलखता हूँ
कभी मुस्कुराता हूँ
खंडित खेल में
अपनी पूर्णता का पता
भूल जाता हूँ
२
प्रवाह में
कहाँ दीखता है
अस्तित्त्व बूँद का
पर मुझमें तो
है आग्रह
अपनी अलग पहचान का,
क्या तुमने ही
नहीं दिया प्रसाद
इस आग्रह का
मुझे अपने से अलग
एक चलती फिरती इकाई
बना कर,
पर
तुम्हारी लय में
लयान्वित होने
आज
पूछ रहा
अपना यह आग्रह छोड़ने की विधि
एकाकी करता है
आग्रहों का यह बंधन,
मुक्त होकर इस घुटन से
कैसे मिलेगा मुझे
सीमातीत आश्रय तुम्हारा
ओ अनंत आकाश
३
है तो सही
अलग अलग ध्वनियों में
समन्वय सजा कर
सौंदर्य उजागर करने वाली
यह एक दृष्टि
पर मेरे शब्दों को
ढक लेती है
ये किसकी छाया
जो नहीं देखने देती
शब्द से परे,
अर्पित कर स्वयं को तुम्हारे चरणों में
देखता हूँ
अनुग्रह किरण छूकर
पारदर्शी होने लगे हैं
शब्द जब
संभव है अब
खुल जाए असीम विस्तार
(मई २०१३ भारत में लिखे गए शब्द )
अशोक व्यास
न्यूयार्क,
२६ अक्टूबर २०१३
2 comments:
भेद नहीं साधन, साध्य में।
पारदर्शी होने लगे हैं
शब्द जब
संभव है अब
खुल जाए असीम विस्तार ...
सुंदर अभिव्यक्ति ....
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