Thursday, August 15, 2013

बस तुकबंदी का खेल


१ 
और कुछ नहीं, बस तुकबंदी का खेल 
शायद खेल खेल में हो ही जाए मेल 

इधर उधर भागते ख्यालों को आखिर 
पटरी पर ले आये शब्दों की रेल 


२ 

अदृश्य हो गयी सपनो की रेल 
चुकने लगा है दिए का तेल 
विलीन अज्ञात लोक में लौ 
करके तेज़ हवाओं से मेल 

३ 

अब ये कौन सा तल है 
जहाँ सब कुछ निर्मल है 
सबके पार देख लेता मन 
शुद्ध, सौम्य और शीतल है 

अशोक व्यास 
न्यूयार्क, अमेरिका 
१४ - १५ अगस्त २०१३
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