शब्द दीप से
पथ उजियारा
करती उसकी
करूणा धारा
उसके गोद
बनी है संबल
जब जब मैं
जीवन से हारा
२
कभी रहे जो
आँख का तारा
उससे भी
ना मिले सहारा
काल प्रवाह
बदल देता है
संबंधों को
कितना सारा
३
बात बात में
सच आ जाए
रेत बना एक घर
ढह जाए
अपनेपन का खेल
गज़ब है
खेल खेल में
खेल छुडाये
४
अब कैसे पहचान बताऊँ
मैं जिसका नित ध्यान लगाऊँ
उसका कहना है, चुप होकर
कहने सुनने से टर जाऊं
५
अपनी दौलत आज लुटाऊँ
सब तज कर खाली हो जाऊं
स्नान करूँ गंगा मैय्या में
अपने कालजयी घर जाऊं
अशोक व्यास
न्यूयार्क, अमेरिका
८ अगस्त २०१३
2 comments:
क्या धारा, जीवन धारा में..
bhaavpurn..bahut sundar sir
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